मन को मैं समझा रहा हूँ |
मन को मैं समझा रहा हूँ|
मरुस्थल में लहलहाते तरु-शिखा देख
अकस्मात एक गजब सा ख्याल मुझको आया
वीरान-बंजर वसुधा में इस दरख़्त ने
पंखुरी नई और पल्लव कोमल कैसे पाया ?
मेरी ताज्जुबी नजर देख, एक टहनी डोला
आदाब फरमाते हुए वह,कुछ यों मुझसे बोला.
होकर अचम्भा यों क्यों देख रहे हो
मेरी कुछेक कामयाबी को गुरेज क्यों रहे हो?
तुझे क्या मालूम मेरा दिल कितना जला है?
अपनो की बेमरौ़अती ने मुझको कितना छला है?
बहुत जिल्लत की जिंदगी जिया है मैंने
अंकुरण से अबतक बहुत कुछ सहा है मैंने
न मिट्टी,न पानी,न उर्वरता अनुकूल था
तापमान,वायु और मौसम भी प्रतिकूल था
फिरभी मिट्टी के अंदर से बाहर जब आया
ऊपर की दुनिया अनोखा ही पाया |
भय था पशु-ग्रास कहीं न बन जाऊं
कठोर कदमों से कहीं कुचला न जाऊं|
रास्ते के पाषाणों ने बहुत रोका था मुझको
पर नदी -धारा बन पथ से हटाया था उसको
इसी तरह सफर मेरा चलता रहा
सारे आंधी तूफानों को सहता रहा|
न गिराया किसी को न धोखा दिया
गिरा खुद संभला खुद, खुद को सहारा दिया|
वर्त्तमान थोड़ा संभला तो लहरा रहा हूँ
फिरभी मुस्तकबिल से घबरा रहा हूँ|
इतना कह टहनी ने बाई मुझसे बोला
‘अब जाओ मुसाफिर’ कह पादप मुँह मोड़ा
दरख़्त से ले रूखसत चला जा रहा हूँ
और तभी से मन को मैं समझा रहा हूँ|