मन को मना तो ले
मन को मना तो ले, मगर कैसे ,
चाल वक्त की मान तो ले, मगर कैसे ,
सांसों के थमने से पहले ,
धड़कन के बंद होने से पहले ,
दीप के बुझने से पहले ,
देह की राख होने से पहले ,
वक्त को स्वीकारा ना जायेगा ,
तड़प रुह की रहेगी ही ,
कुछ तो बदस्तूर ये कहेगी ही ,
आंखों से हृदय में ,
हृदय से जो रक्त में समाए है ,
अब वो जीवनपर्यंत रहेगी ही ,
हर स्पर्श चुभेगी जिस्म पे,
पूछेगी सवाल भी अस्तित्व पे ,
प्रतीक्षा कभी था अनवरत ,
अब इस जागती रात में ,
अब दुनिया की हर बद्दूवा इस रात पे ,
ना कभी ये सूर्य ढलता ,
ना ही कभी ये रात होती ,
रहते हर क्षण हर पल किरणों में ,
खुले असामानों के नीचे ,
तो फिर ये हृदय पीड़ा ना होती ,
अब अपनी सृजन वापस ले ले ,
या धरा को अपनी गोद में ले ले ,
आज ही कयामत की रात हो
या जो कुछ भी है वो प्रत्यर्पण कर दे ,
दीपाली कालरा