मन की बात
मनुज तू प्रगति पथ पर तो चला !
दबा मन की व्यथा , सोच तू शांति में है क्या भला?
अर्थ सिद्धि की साधना में लीन तू ,संवेदना की डोर से हो हीन तू !
स्वयं को छलता गया , ज़ीतकर भी अंतरद्वंद में फंसता गया !
रिश्तों की सघन गांठें कसता गया !
छल, प्रपंच के माया ज़ाल में फसंता गया !
मनुज तू प्रगति पथ पर तो चला !
दबा मन की व्यथा, सोच तू शांति में है क्या भला ?
क्षितिज की गहराइयों को नापने का साहस तो मन में भरा !
किन्तु क्या कभी व्याकुल मन के अतल आयाम को छू सका ?
मनुज तू प्रगति पथ पर तो चला !
दबा मन की व्यथा, सोच तू शांति में है क्या भला?