मन की लफ्ज़ें
हूं मैं फंसा एक अजीब लफ्ज़ों में
सोच-सोचकर हूं परेशान
हर पल हर क्षण तेरी हल में
है मैंने किया ज़ाया वक्त अपना
हर कार्य, परिस्थिति में मैंने
है किया तेरा सामना
पर तू तो हर बार मुझे अपनी चाल में है फंसाती तेरे कारण ही
मैं अपना फैसला अब तक न
किसी कार्य में ले पाया हूँ
मेरी उलझन कशिश सी हर बार रोक लेती है मुझे
मैं तन्हा सा फंस गया अकेला ।
हूँ करता मैं तेरी कद्र बहुत
क्योंकि तुम ही हो एक
जो मुझे हरेक परिस्थिति में
सोच – विचार कर निर्णय लेने के लिए
करती हो विवश
मगर यह विवशता रोक लेती मुझे
अपना निर्णय देने से
है यह मुझे रोक रही अपनी
ज़िन्दगी में आगे बढ़ने से
मैं अब और न सह पाऊंगा
तेरे मोह में न रह पाऊंगा
है बंधक बना लिया था तुमने मुझे!
अब मैं वह बंधन तोड़, अपनी जिंदगी में आगे बढ़ जाऊंगा
लाचारी न मेरी ज़हन में
मैं उन्मुक्त-उन्मुक्त हूं अपनी खुद की पहचान में।