मन की बात-३ :”चंदन”
हमेशा उदास रहना अथवा गंभीर रहना भी मन बुद्धि शरीर आदि के लिए अच्छा नहीं है! आंतरिक प्रसन्नता तो सदा ही रहनी चाहिए, और कभी-कभी खुलकर भी हंसना चाहिए!
1- कुछ लोगों की आदत होती है, चाहे वे अंदर से प्रसन्न हों या न हों, परंतु चेहरे से हमेशा गंभीर ही दिखाई देते हैं!
2- कुछ लोग अंदर बाहर से हमेशा चिंताग्रस्त तनावयुक्त उदास ही रहते हैं!
3- कुछ लोग नये नये वैराग्य के कारण भले ही चेहरे से गंभीर दिखाई देते हैं, परंतु अंदर से प्रसन्न होते हैं!
4- कुछ लोग चेहरे से तो प्रसन्न दिखाई देते हैं, परंतु अंदर से वे बहुत उदास/दुखी होते हैं!
5- और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अंदर से भी प्रसन्न होते हैं और बाहर से भी उनके चेहरे पर प्रसन्नता दिखाई देती है, तथा वे कभी-कभी तो खुलकर भी हंसते हैं!
तो सामान्य व्यक्ति के मन में विचार आता है, कि इनमें से किस व्यक्ति का व्यवहार उचित है!हमें किसका अनुकरण करना चाहिए ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि परिस्थितियों एवं योग्यता के अनुसार कभी गंभीर रहना चाहिए! कभी मौन रहना चाहिए! और कभी खुलकर हंसना भी चाहिए! प्रसन्न तो हमेशा ही रहना चाहिए, भले ही चेहरे पर गंभीरता रहे, फिर भी अंदर से, मन से तो प्रसन्न रहना ही चाहिए! क्या हम संसार में दुःख भोगने के लिए उत्पन्न हुए हैं ? नहीं, सुखपूर्वक जीवन जीने के लिए उत्पन्न हुए हैं!
तो इन सब बातों का समन्वय कैसे होगा ?
इसका उत्तर है, उदास दुखी परेशान चिंता तनाव से युक्त तो कभी भी किसी को भी नहीं होना चाहिए! क्योंकि ऐसा होने से अनेक समस्याएं उत्पन्न होती और बढ़ती हैं!
कोई व्यक्ति आपका उदास/दुखी चेहरा देखकर, प्रसन्न तो नहीं हो सकता, बल्कि आपके उदास चेहरे को देखकर वह भी आप जैसा उदास/दुखी हो जाएगा! इसलिए चेहरे पर उदासी तो कभी भी नहीं रखनी चाहिए! जब भी आप लोगों से मिलें, तो कम से कम हल्की मुस्कराहट से दूसरों का स्वागत करना चाहिए!
मन में सदा सबको प्रसन्न रहना चाहिए, और जो समस्याएं हों, उनका समाधान ढूंढना चाहिए! पहले तो स्वयं समाधान ढूंढना चाहिए! यदि स्वयं समाधान न मिल पाए, तो दूसरे बुद्धिमान, विद्वान लोगों से सलाह लेनी चाहिए! उचित सलाह मिल जाने पर, समस्या का समाधान हो जाने पर, फिर सामान्य रूप से प्रसन्न रहना चाहिए!
“यदि कोई व्यक्ति वैराग्य में नया नया प्रवेश करता है, तो उस व्यक्ति को गंभीर रहना चाहिए, जब तक उसका वैराग्य पक्का न हो जाए!” यह बात ठीक है! परंतु वर्षों तक लंबे अभ्यास के पश्चात जब उसका वैराग्य जाए पक्का हो जाए, तब वह थोड़ा बहुत प्रसंग के अनुसार कभी हंस ले या मजाक कर ले, या आवश्यकता के अनुसार किसी को हंसा दे, तो इसमें विशेष बाधा नहीं आती! जैसे हम सुनते हैं कि, महर्षि दयानंद सरस्वती जी महाराज भी कभी कभी हंसी मजाक में कुछ बातें दूसरों को कह देते थे! जो सामान्य सांसारिक व्यक्ति है, वह भी खुलकर हंस सकता है, उसे कोई बाधा नहीं है! उसे वैराग्य नष्ट होने का भय नहीं है! क्योंकि उसे तो अभी वैराग्य उत्पन्न हुआ ही नहीं और पूर्ण वैराग्यवान् व्यक्ति भी खुल कर हंस सकता है! अब उसे वैराग्य नष्ट होने की आशंका नहीं रही, इसलिए!
हंसना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि इससे अनेक लाभ होते हैं! जैसे कि श्वास प्रक्रिया में सुधार होता है! शरीर को ऑक्सीजन अधिक मिलती है! नस नाड़ियां खुल जाती हैं! दूसरों को भी प्रसन्नता होती है! इससे शरीर का भार कम करने में सहायता मिलती है! हृदय रोग से बचाव होता है! नींद अच्छी आती है! चिंता तनाव भी कम हो जाते हैं इत्यादि, अनेक लाभ हैं!
इसलिए कभी-कभी तो खुलकर भी हंसना चाहिए! यदि हंसने का कोई उपाय न मिले, तो चुटकुले सुन सुनाकर ही हंसना चाहिए!
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
? प्रभु चरणों का दास :- _चंदन
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••