मन की पीड़ा
मन की पीड़ा
मन की पीड़ा को समझ ले वो
नहीं मिलता इंसान,
पत्थरों में रब मिल जाये इंसानों
में नहीं मिलता इंसान।
कितना दर्द देता है ये जमाना
शरीफों को,
डरता नहीं खुदा से कितना है
नादान।
पल दो पल की ज़िंदगी जाने
कब फनाह हो जाये,
सिर में चढ़ाए फिरता देखो
मैं का अभिमान।
तमाशा बना के चलता है ये
किसी के दर्द का,
खुद भी तमाशा बन सकता
है इस बात से अनजान।
मन सुलगता है अकेला इंसानों
भरी दुनियां में,
कोई तो हो जो शांत कर दे ग़मो
के उफनते तूफान।
कहे किसी से दुख अपना तो
डर लगता है,
कर दे ना कोई सारे जहां में
बदनाम।
सुन ले अगर मन की पीड़ा को
मौत टल सकती है,
खिल सकता है किसी की ज़िंदगी
का गुलिस्तान।
जिधर देखो उधर तन्हाइयों का
का शिकार आदमी,
कहने को हंस रहा फीकी मगर
है मुस्कान।
दुनियां के देखो तो अजब गजब
नजारे हैं,
कहीं जश्न मन रहे तो दिल पड़ा है
कहीं वीरान।
स्वार्थी सब अपने हैं ये रिश्ते जो
खून के हैं,
मरने को मजबूर करने का यही
तो करते इंतजाम।
बेकार है उम्मीदें किसी से लगाना
की कोई समझेगा,
किताब खोल अपने गम की जब
सामने हो भगवान।
रख हौंसला मन की पीड़ा को
मन में ही दबा,
वक़्त बदलेगा चमकेगा खुशियों
से दिल का आसमान।
चल अकेला तू हिम्मत से दुख
के दिनों में,
वही सूरमा जो पार कर जाए
ज़िंदगी का हर इम्तिहान।
सीमा शर्मा