“मन की खिड़की”
यह कोई कविता नहीं;मन से निकली आनायास एक आवाज़ है जो मन से निकलता गया;ढलता गया ;मैंने कविता मान लिया ;आप मानोगे तो ठीक नहीं तो यूँ ही पढ़ लेना।
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“मन की खिड़की खोल”
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चल यार
उठ खड़ा हो
मन की खिड़की खोल
निकल बाहर
देख सड़कों पर भीड़ ही भीड़
बड़ गई है
आदमी कुछ कम हो गये हैं
कुछ जा रहे हैं
कुछ आ रहे हैं
कार से एक सिर बाहर निकाल
डाँट रहा स्कूटर को
जो कह रहा
मैंने जाना था जहाँ
वही था देख रहा
लोगों को पता नहीं
जाना कहाँ
पर जा रहे
कोई आ रहे
देख रे मन
यूँ भटक मत
जाना है
जा वहाँ
चल मसान
बैठ कुछ पल
किसी से बात कर
मन हल्का कर
आ जायेगा जिसने जलना है
करो इंतज़ार जब तक
जाना भी है वापिस
चल रे मन
कुछ बावला बन
उठ निकल
बजा खड़ताल
कोई गीत नया रच
और गा झपताल
हाथ उठा
ता ता थैया
नाच ज़रा
औरों को भी नचा
झूम झूम बादल बन
उड़ जरा,बरस जरा
नहीं तो छांव कर
किसी पर
मन रे
थक मत
चल अनवरत
अब खिड़की बंद मत कर
ज़िंदगी है ,जी ज़रा
उठ ,मन मत मसोस !
उठा झोला चल निकल
ले जो भी है पैसा धेला
ले कोई सब्ज़ी
ले कोई भाजी
ठेले पर खड़े हो
खा जलेबी
कुछ मीठा घोल
ज़िंदगी है कितनी बाकी
मत संभाल इसे
जा खुला छोड़ इसे
उठ रे मन
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राजेश”ललित”शर्मा