मन की आवाज़
कभी कभी..
हमारे अपनों के शब्द भी
झकझोर देते हैं अन्तर्रात्मा को..
तोड़ देते हैं कुछ भीतर ही भीतर
गहरी पीड़ा दे जाते हैं
कभी कभी..
क्यों गुनाह बन जाता है
यों हद से ज्यादा सच्चा होना भी
क्यों हम खुद को व्यक्त नहीं कर पाते हैं
क्यों निशब्द हो जाते हैं..निरुत्तर होने लगते हैं
कभी कभी..
मन की पीड़ा टीस देती है
मुश्किल हो जब बयां करना
खामोशी सी छाने लगती है..
अंधेरे की काली छाया जैसे
मन को ढकने लगती है..
कभी कभी..
अपने जब समझ नहीं पाते हैं
लाख शब्द हों हमारे पास
उनके हृदय को छू ना पायें तो
अर्थहीन से लगते हैं..
कभी कभी..
मन शून्य सा हो जाता है
कुछ भी समझ नहीं पाता है
अपनो के सहारे को लालायित
ये दिल छटपटाये जाता है
कोई नज़र नहीं आता है..
कभी कभी..
भीड़ बहुत होती है अपनों की
शोर बहुत सुनाई देता है
पीड़ा में हो जब ये दिल
चीख कोई सुन नहीं पाता है
किनारा हर कोई करने लगता है
कभी कभी..
हम सीखने लगते हैं जीना
अपने दुख में भी सुख में भी
मुस्कुराकर अपने गम को छिपाना
क्योंकि किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता
हमारे आँसुओं से..हमारी पीड़ा से
क्योंकि जीना इसी का नाम है….©® अनुजा कौशिक