मन का मचलना
कविता
दिन तो सूरज के प्रकाश से होता हैं
चाँद तो वे बजह जलता है
सुकूँन तो पेड़ की छाँव से मिलता हैं
फिर आदमी न जाने क्यूँ
धूप निकलता हैं
बदनाम तो बवूल हैं
फिर भी उसका नाम लोगों के मुँह से
एक अच्च्छाई के लिये निकलता हैं
नाम आम का हैं फिर भी एक बुराई में किनता हैं
कर्म तो इंशान ही करता हैं
फिर अंजाम के लिये क्यूँ
मचलता हैं
रोते तो हम भी हैं कभी कबार
फिर क्यूँ कोई हमारी खुशियों से
जलता हैं
कर्म से ही बनता हैं इंशान का नसीब
फिर भाग्य के लिये क्यूँ
मचलता हैं
आखिर हम हैं इंशान कर्म करते रहैं
फिर क्या कोई हमारे
हुनर से जलता हैं
लेखक– Jayvind singh