मन का पाखी…
मन का पाखी लो उड़ चला
क़ैद पिंजरे में रहा कब भला
गिरी गगन धरा दरिया पवन
छोड़ नीचे जहां बादलों में पला
पात पात कभी डाल डाल
भूल सारे जगत के मलाल
बूँदों सा नाचता फिरे बावरा
न चिंता न फ़िकर न सवाल
जग में जीता ज्यूँ बंजारा
गली गली भटके आवारा
ना कहूँ ठौर न ही ठिकाना
जाने क्या ढूँढे वो बेचारा
रेखांकन।रेखा ड्रोलिया