* मन कही *
** गीतिका **
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छूट गई हैं जो भी बातें, कर लें आज।
और सुरों में ले आएं अब, मन के साज।
ऊंचें स्वर में जब हम करते, कभी न बात।
फिर भी कुछ साथी हमसे हैं, क्यों नाराज।
कदम बढ़ा करते जब आगे, उड़ती धूल।
ज्ञात सभी को हो जाते निज, कुछ अंदाज़।
भारी मन लेकर कब तक हम, आयें साथ।
मुश्किल है आखिर रख पाना, सारे राज़।
संघर्षों में अब क्यों रहना, है बेकार।
तभी सुरक्षित रह पाता है, सिर पर ताज।
शीश नवाया करते हैं सब, आकर पास।
जब बुलंद हो सम्मुख सबके, निज आवाज।
उसपर टिकी हुआ करती है, सबकी आंख।
जिस पाखी की सबसे ऊंची, हो परवाज़।
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सुरेन्द्रपाल वैद्य, ०७/०४/२०२४