मन्नत के धागे
हाथ का कलावा
हर उत्सव पर बदलता है
पर मां के मन्नत का
धागा आज भी मेरे बाजू
पर यथावत बना रहता है।
याद है एक बार
मैं बीमार बहुत पड़ा था
दवा आदि विधिवत
चल रहा था
पर तबियत थी कि
उसमे कोई सुधार ही
नही हो रहा था।
निराश, मेरी माँ
संसार की मां के धाम
दर्शन हेतु गयी
भावावेश में परेशान
पुजारी से अपनी
करुण व्यथा कह गयी।
उनके कहने पर
मन्नत मांग, एक मन्नत के
धागे के साथ लौटी।
पूरे विधि -विधान से
वह धागा मेरे
बाजू पर बांध दिया गया
अब इसे चमत्कार
कहे या संयोग
मेरी तबियत में क्रमशः
सुधार होने लगा
घर मे सबका विश्वास
अब श्रद्धा में
बदलने लगा था।
मैं आज भी
उस घटना के बारे मे
जब सोचता हूँ
एक द्वंद्व में पड़ जाता हूँ
उस चमत्कार को सोच
सिहर जाता हूँ।
विज्ञान के इस युग मे
ऐसी बातें भ्रामक
हो सकती है
पर निर्मेष चश्मदीद
होकर कैसे इसे
एक सिरे से नकार कर
निरर्थक कह दूं
आज भी उस दुविधा से
निरापद ग्रस्त हूँ।
अध्यात्म व विज्ञान के
अंतर्द्वंद्व में झूलता हूँ
कुछ समझ में न तो आता है
न कुछ समझ पाता हूँ।
आज भी वह
मन्नत का धागा
मेरे बाजू पर शोभित
मेरी प्राथमिकता
बन गया है
साथ ही
मुझे माँ के अपने
करीब सदा होने का
अहसास देता रहता है।
निर्मेष