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3 May 2024 · 1 min read

मन्दिर

मन्दिर (दुर्मिल सवैया )

जब स्वच्छ बना रहता मन है तब ईश्वर धाम यही लगता।
कपटी मन में नित प्रेत बसे यह राम निवास नहीं बनता।
मन में जब मच्छर कीचड़ है नित दर्प घमंड वहां रहते।
नहिं निर्मल भाव पवित्र ज़हाँ प्रभु राम कभी न वहाँ रमते।

न प्रदर्शन से मिलते प्रभु जी न कुभाव कभी उनको जंचता।
वह देखत पावत है प्रभु जो मन से उर से उनको भजता।
नहिं ईंट दिवार कभी प्रिय मन्दिर हो न कभी मन प्रेमशुदा।
अघ को मिलते नहिं राम कदा नित नाचत गावत संत सदा।

साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।

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