मनोरथ
एक मनोरथ-
जो सदियों से मैंने, मन में संजोये थे,
जाने कितनी बार इसके लिए रोये थे,
बड़ी उम्मीद थी होगी ,कभी तो ये पूरी,
बदकिस्मती से यह भी रह गई अधूरी।
सारी उम्मीदों पे समय ने फेर दिया पानी,
पूरी होते-होते अधूरी रह गई ये भी कहानी।
पर मेरी आँखों ने ख़्वाब सजाना नहीं छोड़ा,
पाने की जिद ने कहीं हार जाना नहीं छोड़ा।
आगे जाने की जिद ने कदम बढ़ाना नहीं छोड़ा,
चलते-चलते बस आगे चलते जाना नहीं छोड़ा।
कुछ न पाकर भी ये मन कभी न हुआ उदास,
न थका,न हारा, कहीं न कहीं था इसे विश्वास।
परिश्रम एक न एक दिन, रंग ले ही आयेगा,
सफलता को भी अपने संग,ले ही आयेगा।
और तब पूरे होंगे अधूरे सारे मनोरथ,
बस छोड़ना नहीं है कभी कर्तव्य पथ।
बस छोड़ना नहीं है कभी कर्तव्य पथ।।
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रचना- पूर्णतः मौलिक एवं स्वरचित
निकेश कुमार ठाकुर
गृहजिला- सुपौल
संप्रति- कटिहार (बिहार)
सं०-9534148597