*मनुष्य शरीर*
*पुरुष का वह शरीर कहा गया है इससे बढ़कर अशुद्ध ,पराधीन ,दुखमय और अस्थिर दूसरी कोई वस्तु नहीं है।शरीर ही सब विपत्तियों का मूल कारण है उससे युक्त हुआ पुरुष अपने कर्म के अनुसार सुखी दुःखी और मूढ़ होता है।जैसे पानी से सींचा हुआ खेत अंकुर उत्पन्न करता है,उसी प्रकार अज्ञान से आप्लावित हुआ कर्म नूतन शरीर को जन्म देता है।ये शरीर अत्यंत दुखों के आलय माने जाते हैं।इनकी मृत्यु अनिवार्य होती है ।भूतकाल में कितने ही शरीर नष्ट हो गए और भविष्य काल में सहस्त्रों शरीर आने वाले हैं,वे सब आ – आकर जब जीर्ण – शीर्ण हो जाते हैं; तब पुरुष उन्हें छोड़ देता है।कोई भी जीवात्मा किसी भी शरीर में अनंत काल तक रहने का अवसर नहीं पाता । यहां स्त्रियों ,पुत्रों और बंधु बांधवों से जो मिलन होता है,वह पथिकों के समागम के ही समान है।जैसे महासागर में एक काष्ठ कहीं से और दूसरे काष्ठ के साथ कहीं थोड़ी देर के लिए मिल जाते हैं और मिलकर फिर बिछड़ जाते हैं।उसी प्रकार प्राणियों का यह समागम भी संयोग – वियोग से युक्त है। ब्रम्हा जी से लेकर स्थावर प्राणियों तक सभी जीव पशु कहे गए हैं। उन सभी पशुओं के लिए ही यह दृष्टांत या दर्शन शास्त्र कहा गया है ।
यह जीव पाशों में बंधता और सुख दुःख भोगता है,इसलिए “पशु” कहलाता है।यह ईश्वर की लीला का साधन भूत है ,ऐसा ज्ञानी महात्मा कहते हैं।
वायवीय संहिता
शिव पुराण🙏🏼🔔🔱🌹🔔🔱🌹🔔🔱🌹