मनुष्य का चरित्र: है कितना विचित्र!
मनुष्य का चरित्र,
है कितना विचित्र,
अपना ही देखते हैं फायदा,
दूसरे के लिए अलग नियम कायदा,
दूसरों से करते हैं ऐसी अपेक्षा,
दूसरे की कर लेते हैं उपेक्षा,
हमें तो वह है करना , जो स्वयं को लगे अच्छा,
और दूसरों से करते हैं अलग ही अपेक्षा!
हम क्यों है ऐसे,
अपनी जरुरत को देते हैं तरजीह,
और दूसरों को समझते हैं निरीह,
हम अपनी जरुरत के हिसाब से,
पशु पक्षियों को भी बना लेते हैं मित्र,
करने लगते हैं उनसे स्नेह का व्यवहार,
पशु पक्षी भी करने लग जाते हैं हमसे प्यार,
किन्तु अपनी जरुरत के मुताबिक बदल देते हैं प्राथमिकता,
घटा देते हैं हम उनसे निकटता!
हमारी कला का कोई शानी नहीं,
हमें होती है जब परेशानी कोई,
हम अपने मतलब के लिए शाष्टांग हो जाते हैं,
मंदिर मस्जिद गिरीजा घर, गुरुद्वारे में देखे जा सकते हैं,
मतलब निकल जाने पर वहां झांकने भी नहीं जाते हैं,
किस तरह से इनके आचरण की व्याख्या करुंं ,
किस किस बात को उजागर करुं,
आज कल में देख लीजिए,
दूसरे को खूब उपदेश दीजिए,
अपने आप जिसे अपनाते नहीं,
हमारे लिए उसे जरुरी बताते वही,
देखना है तो मास्क के लिए देख लीजिए,
या फिर हैल्मेट को लेकर देख लीजिए,
और चाहे तो सीट बेल्ट को देख लीजिए,
या फिर चलने चलाने की स्पीड देख लीजिए!
हम दूसरों से बेहतर की अपेक्षा करते हुए दिखते हैं,
अपने व्यवहार पर कभी ध्यान नहीं धरते हैं,
एक दूसरे पर नुक्ताचीनी करने लगते हैं,
दूसरे की गलतियों पर गरियाने लगते हैं,
अपने को हम सुपर स्टार बन कर दिखाते हैं,
और दूसरों पर तोहमत पर तोहमत लगाते दिखते हैं!
इसको हम कहां कहां नहीं देखा करते हैं,
व्यवस्थाएं, संस्थाएं, और न्यायालयों में देख सकते हैं,
एक दूसरे के गिरेबान को निचोड रहे हैं,
नेताओं से तो ऐसी उम्मीद बची ही नहीं है,
अगर कोई करता भी दिखाई दे तो उसे चुका हुआ कहते हैं,
अपने आप स्वयं तो रोज कायदे कानून की तिलांजली दे रहे हैं,
हम हैं ही ऐसे, ऐसे ही रहेंगे,
चाहे कोई कुछ भी कहे,हम तो वही करेंगे,
हम हैं ही विचित्र, विचित्र ही रहेंगे,
हमारा चरित्र ऐसा ही है,हम उसे ऐसा ही रखेंगे!
ना हम सुधरे हैं,ना हम कभी सुधरेंगे!!