मनुक्ख बनब कोना?
मनुक्ख बनब कोना?
छीः छीः धूर छीः आ छीः
मनुक्ख भ’ मनुक्ख सँ घृणा करैत छी
ओही परमेश्वर के बनाउल
माटिक मूरत हमहूँ छी अहूँ छी।
केकरो देह मे भिरला सँ
कियो छुबा ने जाइत अछि
आबो संकीर्ण सोच बदलू
ई गप अहाँ बुझहब कोना?
अहिं कहू के ब्राह्मण के सोल्हकन?
के मैथिल के सभ अमैथिल
सभ त’ मिथिलाक मैथिल छी
आबो सोच बदलू मनुक्ख बनब कोना?
अपना स्वार्थ दुआरे अहाँ
जाति-पाति के फेरी लगबैत छी
मुदा ई गप कहिया बुझहब
सभ त’ माँ मिथिले के संतान छी।
पाग दोपटा मोर-मुकुट
सभटा त’ एक्के रंग रूप छी
मिथिलाक लोक मैथिल संस्कार
एसकर केकरो बपौती नहि छी।
एकटा गप अहाँ करु धियान
सभ गोटे मिथिलाक संतान
जाति-पातिक रोग दूर भगाउ
सभ मिली कए लियअ गारा मिलान।
अपने मे झगरा-झांटी बखरा-बांटी
एहि सँ किछु भेटल नहि ने?
सोचब के फर्क अछि नहि कोनो जादू टोना
अहिं कहू आब मनुक्ख बनब कोना?
बेमतलब के गप पर यौ मैथिल
अहाँ एक दोसरा स’ झगरा करैत छी
माए जानकी दुखित भए कानि रहल छथि
ई गप किएक नहि अहाँ बुझहैत छी?
सामाजिक-आर्थिक विकास लेल काज करु
मिथिलाक माटि-पानि उन्नति करत कोना
केकरो स’ कोनो भेदभाव नहि करु
सप्पत खाउ अहाँ मनुक्ख बनब कोना?
कवि© किशन कारीगर
(©काॅपीराईट)