नारी
मनीषियों , संतो , शूरवीरों की जगत जननी ,
ममता से सहेजती संस्कारों से सँवारती त्याग की प्रतिमूर्ति ,
जीवन पथ पर बनी प्रेरणा स्रोत वह जीवनसंगिनी ,
सहनशीलता की पराकाष्ठा का साकार रूप लिए , संघर्षरत स्वर्ग से सुंदर घर संसार निर्माण में लीन,
अविचिलित अपनों के उज्जवल भविष्य की चेष्टा में तल्लीन ,
असीम आत्मबल लिए दूसरों का संबल स्रोत बनी
फिर भी निरूपित होती अबला के नाम से !
किंचित् हमारे विकार, विफलता ,और कुँद मानसिकता उसे सबला कहने से झुठलाते हैं !
हमारी दंभी पुरुष मनोवृत्ति इस सत्य को मानने से नकारती है !
हम भूल जाते हैं उसकी देन हैं हम !
यह हमारा अस्तित्व !
और नाहक प्रयत्न करते हैं मिटाने उसे भ्रूण में !
हमें याद नहीं रहती वह जो पुरानी कहावत है ,
” ना रहेगा बाँस तो कहां से बनेगी और बजेगी बाँसुरी”,
क्योंकि बिना बाँस की बाँसुरी से सुर नहीं
आर्तनाद ही निकलेगा !
जब संस्कार ही नहीं होंगे तब मानव नहीं क्लोन रूपी दानव निर्मित होंगे !
एक दूसरे के प्रतिरूप बने तथाकथित मानव अपनी विनाश लीला से ऐसा उत्पात मचाएंगे !
तब यह वसुंधरा जो स्वर्ग से सुंदर लगती है !
नर्क से भी बदतर रसातल में पहुंच जाएगी !