मनाव के कर्मों की दशा
इस क़दर ढाया ज़ुल्म-ए-कातिले इंसान ने,
गाँव-जंगल से उड़ाये हरे पेड़ ओर घर के तने ।
अब क्यूँ तू पछतावा करता,
क़्या कोई है ऐसा उपाय ।
धूप ग़हरी हो रही यूँ,
जैसे वृक्ष तले मिलती है छाँव ।।
अपने हर सुखः-दुःख का मानव,
कारण किसी और को मानता ।
वृक्ष न रोपे क़भी उसने ज़मीन पर,
जिन्हें वो दिन-रात काटता ।।
मौसम भी लेता है करवट,
पानी मिले न वर्षा ऋतु, शरद ऋतु शीत लहर,
अब क्यूँ मानव है तड़पता,
तू झेल अपने कर्मों का क़हर ।।
सोत जल के यूँ सूख गए,
जैसे गिद्ध हुए कहीं बेनजर ।
प्यासा मरे पँछी यहाँ अब,
सूखी रहे मेरे बचपन की नहर ।।
बाँध सरोवर बन रहे अब,
सिर्फ़ उद्योगों के लिए ।
ख़त्म कर आदिवासी नामों-निशाँ ।
तू “आघात” परेशां किसके लिए ।।