मनमुटाव
‘ऐसी बातो से नाराज़ नहीं होते बेटा’ कहते हुए रेणुकाजी ने ससुराल से वापस आयी बेटी को समझाया.
प्रेमविवाह करके एक साल पहले विशाला दूसरे शहर गयी थी ।सबसे अच्छी घुलमिलकर प्यार से रहती थी।अपने पति से बहोत ही प्यार करनेवाली विशाला उसकी ननंद , जो बेटे को लेकर डिवोर्स लेकर वापस आ गयी थी उसके बाद में काफी बुझी बुझी-सी रहने लगी।छोटी छोटी बातो को लेकर मनमुटाव होता रहता ।काफी बहस के बाद राहील ने भी गुस्से में कह दिया ।
‘ देखो, मेरी बहन सिर्फ़ मेरे पापा-मम्मी की नहीं मेरी भी जिम्मेदारी है और वह भी प्यार से संभालना है, में ऐसे मुश्किल परिस्थति में इन सबको अकेला छोड़ अपना संसार नहीं बना सकता”
‘लेकिन इन सब जिम्मेदारियों के बिच, में अपनी ज़िन्दगी कब सेट करुँगी? पढ़े लिखे होकर भी घर में ही उलझाए हुए बैठे रहना मुझसे नहीं होगा’
और …गुस्से में अपने पीहर वापस आ गयी ।सब के काफी समझने के बावजूद दोनो ने कोई समाधान करने से इन्कार कर दिया।विशाला ने वापस अपने आपको नये काम के साथ ढालते हुए अपने सपनो की उड़ान भरनी शुरू कर दी ।घरमें भाई-पापा मम्मी सबका बहोत सपोर्ट था।
समय अपने पंख लिए उड़ता रहा और भाई की शादी के बाद भाभी के साथ भी सहेली की तरह आनंदित माहौल में परिवार ज़ूम उठा।एकदिन ऑफिस से आकर अपने बेडरूम में जा रही विशाला ने बाजु के रुम में भैया और भाभी के बीच मे हो रही बहस सुनी।
“ये क्या हो रहा है ?हमारी कोई प्राइवसी है कि नहीं? क्या मुझे हर काम में और कहीं जाना है तो दीदी के साथ ही जाने का?”
“देखो, मेरी बहन से में बहोत प्यार करता हूँ और उसके संघर्ष में मेरी जिम्मेदारी है कि में उसे साथ दूँ ”
…ये सुनकर विशाला अपने रुम में जाकर अपने मन को टटोलती हुई घंटो रोती रही ।
-मनीषा जोबन देसाई