“मधुशाला”
“मधुशाला”(माहिया छंद, विधा-२२२२२२ २२२२२ २२२२२२,पहली तीसरी पंक्ति समतुकांत)
रातों को आते हो
नींद चुरा मेरी
मुझको तड़पाते हो।
नैनों बिच तू रह दा
मधुबन सा जीवन
काँटे सम क्यों जी दा?
दिल डूब गया सजनी
आन मिलो मुझसे
मैं राह तकूँ रजनी।
चंदा बन तुम आना
रूप सजा मेरा
दर्पण में बस जाना।
जादू ऐसा डाला
जी न सकूँ अब मैं
तू पूरी मधुशाला।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
संपादिका-“साहित्य धरोहर”
वाराणसी(मो. 9839664017)