मधुशाला छंद में हास्य हल्का सा
एक कोशिश मधुशाला छंद पर
16 व् 14 पर यति अंत 2 गुरु से।
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प्रेमचन्द की पूस रात सी शीत लहर ये आली है।
गाली दे दे चाय बनायें मुश्किल से घर वाली है।
कौन रज़ाई से निकलेगा चाय बनाने के खातिर।
सिकुड़े सिकुड़े बैठे बैठे तलब चाय की पाली है।
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आखिर हम ही बाहर निकले यारा चाय बनाने को।
जिमि सरहद पर बैठा सैनिक अपनी धाक जमाने को।
चाय बनी तो सजनी बोली जानू कितने अच्छे हो।
उपवासो का पूण्य मिला जो किये तुमें ही पाने को।
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मैं बोला मुझको भी जानम ,सचमुच में पछतावा है।
किये नही उपवास कभी जो, माना एक दिखावा है।
थोड़े बहुत किये होते तो हमको भी कुछ मिल जाता।
हम भी क्यों कहते फिरते फिर किस्मत एक छलावा है।
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लेकिन अब क्या हो सकता है निकल गई सारी बाते।
कितने सावन सूखे निकले कितनी बीती बरसाते।
मजबूती इतनी दी तुमने अब सब कुछ सह लेता हूँ।
नही सताते अब मुझको दिन सर्दी गर्मी की राते।
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देखो जानम सब सखियाँ मेरी मुझसे जलती है।
पतिदेव मिले परमेश्वर तो ,बस इसको ही कहती है।
घर का सारा काम करें जो कितनी मोहब्बत आपस में।
घर पर जाकर अपने अपने पति पर ताना कसती है।
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सुनलो जानू सच बोलूँ तो ,पूरा मजनूँ जमता हूँ।
आफताब सी तुम हो प्यारी मैं तो
जुगनू दिखता हूँ।
क्या बिसात है तेरे आगे मेरी दीख चमक जाए।
तुम फूली फ़ूली लगती हो , मैं तो फुकनू लगता हूँ।
******मधु गौतम