मत बाँधों … मुझको !
मत बाँधों तुम समय में मुझको,
मुझे उन्मुक्त जीवन सा बहने दो,
गुण हैं कुसुम से, तन में, ह्रदय में,
बिंधकर हार में हार जाऊंगी मैं तो,
चाह तुम्हीं रखोगे मुझकों तोड़ने की,
टूटके डाल से बिखर जाऊंगी मैं तो,
इत उत,यूँ ही, कहीं भी किंतु ऐसे ही,
मुझे तुम सुरभित-सुमन सा खिलने दो !
सार जीवन का इसी में है कि यूँही,
पल पल क्षण क्षण गुजरती जाऊं,
भर दूँ प्राण सबमें बिन रुकी-थकी,
नवयुग के नवगान लिखती जाऊं,
अलक्षित ही सही यद्यपि लक्ष्य मेरा,
मुझे बिनबाधा पवन सा बहने दो !
कहो पयोधिनी मुझे या तरंगिणी,
तटिनी, तरिणी, हिमसुता कह दो,
बांध नहीं सकेंगें ये तटबंध पथरीले,
जाओ कोई इनसे इतना कह दो,
हो जाऊंगी लुप्त कल कहीं किंतु,
आज निर्बाध सरित सा बहने दो !
मैं भी हो जाऊं पखेरुओं की तरह,
असीम अनन्त नभ में उड़ती रहूँ,
तोड़ पिंजर रीतियों के सदा के लिए,
चपला सी मेघ-मध्य उमगती रहूँ,
बंधन ये सम्बन्धों के भी ठुकराकर,
निर्भय,निशंक,निर्बंध ही रहने दो !
अनमोल पावन प्रेम भरती हुई मैं,
बस विश्वास के मधुरस से सिंचित,
अर्पण,समर्पण, त्याग मुक्त होकर,
जिसमें उपालम्भ नहीं है किंचित,
नित घटता हुआ ही बढ़ता है जो,
सतत् सहज जीवन सा बहने दो !