मत कर नारी का अपमान
अब भी सम्हल जा, मत कर, नारी का अपमान।
है समृद्ध संस्कृति नारी से, ऐ ! नादान।।
कुल देवी, कुल की रक्षक, कुल गौरव है।
बहिन, बहू, माता, बेटी यही सौरव है।
वंश चलाने को, वह बेटा-बेटी जनती,
इसका निरादर, इस धरती पर रौरव है।
बिन इसके हो जाए न, घर-घर सुनसान।
अब भी सम्हल जा, मत कर, नारी का अपमान।।
सखी-सहेली, छैल-छबीली, यह अलबेलीा।
बन जाए ना, यह इक दिन, इतिहास पहेली।
झेल दिनों-दिन, पल-पल दहशत औ प्रताड़ना,
चण्डी, दुर्गा ना बन जाए, नार नवेली।
इसका संरक्षण करता, कानून-विधान।
अब भी सम्हल जा, मत कर, नारी का अपमान।।
पर्व, तीज, त्योहार, व्रतोत्सव, लेना-देना।
माँँ, बहिना, बेटी, बहु, है मर्यादा गहना।
कुल, कुटुम्ब की रीति, धरोहर परम्पराएँँ,
संस्कार कोई भी, इसके बिना मने ना।
प्रेम लुटा कर तन-मन-धन करती बलिदान।
अब भी सम्हल जा, मत कर, नारी का अपमान।।
घर का है सौभाग्य, है नारी, श्री साजन की।
घर का सेतु है, बागडोर, जीवन-यापन की।
समाधान, परिहार न, हो पाएँँ नारी बिन,
सुरमई स्वर्णलता है नारी, घर आँँगन की।
घर की ईंट-ईंट करती, इसका ही बखान।
अब भी सम्हल जा, मत कर, नारी का अपमान।।
बच्चे बनते योग्य, इसी के, तप धीरज से।
ज्यों दधि, घी, नवनीत, निखर आए क्षीरज से।
धन्यभाग सम्मान, जहाँँ, मिलता नारी को,
ज्यों महके दलदल में भी, सुरभी नीरज से।
दृढ़ता धरा सदृश, शीतलता चंद्र समान।
अब भी सम्हल जा, मत कर, नारी का अपमान।।
धरा सहिष्णु, नारी सहिष्णु, ममता की मूरत।
हर देवी की छवि में है, नारी की सूरत।
सुर, मुनि, सब इस आदिशक्त्िा के, हैं आराधक,
मानव की ही क्यों है, ऐसी प्रकृति बदसूरत।
भारी मूल्य चुकाना होगा, ऐ मनु ! मान।
अब भी सम्हल जा, मत कर, नारी का अपमान।।
महाभारत का मूल बनी थी जो, वो थी नारी।
रामायण भी सीता, कैकेयी की बलिहारी।
हर युग में नारी पर, अति ने, युग बदले है,
आज भी अत्याचारों से, बेबस है नारी।
एक प्रलय को पुन:, हो रहा अनुसंधान।
अब भी सम्हल जा, मत कर, नारी का अपमान।।
नारी ना होगी, तब होगा, जग परिवर्तित।
सेवाभाव खत्म, उद्यम, पशुवत परिवर्धित।
रोम-रोम से शुक्र फटेगा, तम रग-रग से,
प्रकृति करेगी जो, बीभत्स दृश्य, तब सर्जित।
प्रकृति प्रलय का तब, लेगी स्वप्रसंज्ञान।
अब भी सम्हल जा, मत कर, नारी का अपमान।।
है समृद्ध संस्कृति नारी से, एे ! नादान।
अब भी सम्हल जा, कर तू, नारी का सम्मान।।