मत कर तू अभिमान
धन, जन, बल, शिक्षा, पौरुष, गर हो तुम्हारे पास,
आम नहीं समझ खुद को, तुम हो बहुत ही खास।
पता नहीं है तुझको, पर मुझको है ये एहसास,
मत कर तू अभिमान, बस ईश्वर पर कर विश्वास।
क्यों करता है गुरूर क्या किसी का रह पाया है,
धीरे-धीरे यही अभिमान दीमक बनकर खाया है।
मनी और मणि की तपिश कोई नहीं सह पाया है,
इसी अहंकार के कारण रावण भी प्राण गंवाया है।
जब शरीर ही नहीं रहे तो ये प्राण किस काम का,
जब गैरत ही नहीं बची तो सम्मान किस काम का।
यूँ तो जीने वाले बेगैरत इन्सान भी हमने देखे हैं,
गर मान ही नहीं तो ये अभिमान किस काम का।
?? मधुकर ??
(स्वरचित रचना, सर्वाधिकार©® सुरक्षित)
अनिल प्रसाद सिन्हा ‘मधुकर’
ट्यूब्स कॉलोनी बारीडीह,
जमशेदपुर, झारखण्ड।