मत्तग्यन्द सवैया
देख गरीब मजाक करो नहि,हाल बनो किस कारण जानो ।
मानुष दौलत पास कितेकहु,दौलत देख नही इतरानो ।
ये तन मानुष को मिलयो,बस एक यही अब धर्म निभानो ।
नेह सुधा बरसा धरती पर,सीख सिखा सबको हरषानो ।
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काल घड़ी सब ही बदले अबनायक भ्रष्ट बने अधिकारी ।
भीतर भीतर घात करें मनमीत रहे न रही अब यारी ।
बात करे सब स्वारथ की तब,बात रही नहि मानस वारी ।
पूत – पिता मतभेद परो अब,दाम बने जग के गिरधारी ।।
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देखत रूप अनूप मनोहर,मोहित मोहन पे हुइ गोरी ।
श्यामल श्याम की’सूरत पे,दिल हार गई वृषभानु किशोरी ।
नींदहुँ आवत नाहि उसे अब,नैनन में वु समाय गयो री ।
बैरनियां बन रात सतावत,मारत है अब याद निगोरी ।
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रूपवती वह चंद्रमुखी,लब लाल रचे लट नागिन कारी ।
नैन कटार गुलाबिहु गाल,ललाट लगी टिकुली बहु प्यारी ।
कानन में लटके झुमका,अरु नाक सजी नथुनी मतबारी ।
रूप मनोहर देखत ही,सुधि भूल गये खुद ही बनवारी ।
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दीप जले अँधियार मिटा,अगयान मिटा जब ज्ञान पसारा ।
प्रीत झरी जब गीत बना,मनमीत बही जब नेह की’ धारा ।
पर्व बना खुशियाँ बरसी,तब रीत बनी चल लीकहु यारा ।
धीरज कूँ धर जीत मिली,अरु ध्यान धरे उतरा भव पारा ।।
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शौकिन को यह दौर चलो,फिर शौकन पे धनधान लुटायो ।
भ्रात रहो नहि भ्रात यहाँ,सब गैरन में अपनापन पायो ।
पूत पिता मतभेद हुओ,अब लालच है उर माहि समायो ।
टूटत है परिवार यहाँ,जब आप छलो,अपनों बिखरायो ।।
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दर्द उठो मन कम्पित है,तन होत यहाँ नित मान उतारी ।
छोड़ दियो चित चिन्तन कूँ,तज लीक बने नव रीतहु धारी ।
त्याग करो तप को फिर भी,धर रूप बने वह लोग पुजारी ।
स्वाद लगो धन को बिन कूँ,अब धर्म तजे सब ही धनुधारी ।
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जान धरे कर ऊपर कूँ,अरु जीवन जोखिम में धर दीनो ।
छोड़ सभी परिवार बसे,घर बार्डर कूँ फिर मानहु लीनो ।
वीर डरें कब संकट ते,डर के यह जीवन है नहि जीनो ।
जान बड़ी नहि मान बड़ो,कह बात निछावर जीवन कीनो ।
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प्रेम बढो पुरजोर हुओ मन,मोहन के बिन चैन न आवे ।
भूख लगे नहि प्यास लगे अब,दर्श बिना कछु मोय न भावे ।
राह निहारत बीत गयो दिन,रात वही फिर याद सतावे ।
रोय रही वृषभानु लली सुन,साँवरिया कितनो तड़पावे ।
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