मत्तगयंद सवैया
!! श्रीं!!
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मत्तगयंद सवैया
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भेद बढ़ा सुरसा मुख सा गहरी अति घोर खुदीं मन खाई ।
प्रेम पड़ा सिसके बिलखे अब टूट रहीं नित ही अशनाई ।।
भ्रात नहीं अब भ्रात रहा रचता षडयंत्र दिखा अब भाई ।
भारत मात कराह रही किसने यह भीषण आग लगाई ।।
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ज्योति जले उर प्रेम जगे मन नेह झरे कुछ चैन मिलेगा ।
सूर्य नया फिर पूरब से उग आँगन का अँधियार हरेगा ।।
नूतन रंग रँगें कलियाँ नव पुष्प खिलें पुनि बाग सजेगा ।
विश्व गुरू पद पाकर के फिर भारत भाल किरीट बँधेगा ।।
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
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