मत्तगयंद सवैया
मत्तगयंद सवैया
सात भगण अंत दो गुरु
211 211 211 211, 211 211 211 22
साजन छोड़ गए परदेश लगे घर सून मुझे दिन राती।
दूर पिया सुध में प्रियसी दिन रात जलूं जस दीपक बाती।
कौन कसूर हुआ हमसे प्रिय छोड़ गए सुलगे निज छाती।
ब्याह किया खुश थे कितना पर आज कहें मुझको अपघाती।
निश्चल प्रेम किया उनसे समझे न पिया दिल की कछु बातें।
भाग्य बना रिपु मोर सखी पिय याद करें कटती अब रातें।
आस लगी हर रोज पिया कब लौट यहीं अपने घर आते।
सेज बिछी यह सून पड़ी नहि पास पिया मन में घबराते।
प्रीति जगे मन सून हुआ सजनी घर में पछताय रही है।
रुग्ण कठोर दिखे नयना बिन साजन रात बिताय रही है।
झूम चली मद मस्त बयार बढ़े मन प्रीत लुभाय रही है।
भृंग बने वह डोल रहे सजनी सुध क्यो नहि आय रही है।
चैन परै नहिं रैन कटे सजना बिन मोर भई नम आँखे।
हूक भरै हिय कूक उठै नित साजन दर्श मिले कब आँखे।
कौन भला अपराध भयौ पिय क्यों बिछड़ाय लईं निज आँखे।
राह निहार रही दिन रात दुखी सजना बिन बेसुध आँखे।
©मौलिक-स्वरचित:-
अभिनव मिश्र”अदम्य
शाहजहांपुर, उत्तरप्रदेश