मत्तगयंद सवैया छंद
बृद्ध हुआ मन आज अभी, पर यौवन का मधुमास न भूला।
मौज करे निज धर्म सु-संग कुमार्ग तजें पल खास न भूला।
काल परिस्थिति होत विरूद्ध सुपंथ चला मन आस न भूला।
नूतन यौवन की गति के, बल आज लगा खरमास न भूला।।
यौवन की हम बात करें, अजि राह न नूतन है मनमानी।
पंथ कुपंथ कहें उसको, जिससे नित ऊपर हो सिर पानी।
लाज हया निज आन सखे, खिलवाड़ करें जिससे अभिमानी।
धर्म सहे जिससे नित हान कलंकित ही वह खाक जवानी।।
रीति रही परिवर्तन की, जिसको जग ने मन से अपनाया।
काल कु-चाल चले कहते, करनी कर धृष्ट कलंकित काया।
धर्म विरुद्ध करे अघ कर्म बताय रहे कलिकाल कि छाया।
छोड़ सिहांसन स्वर्ण चले जब जान गये असली जग माया।।
सृष्टि स्वभाव सदा जग में, परिवर्तन ही हम मान रहे हैं।
बीत गयी वह बात गई, उस कारण ना हठ ठान रहे हैं।
अल्प रहे पर वस्त्र रहे, तन चीर तजे अपमान रहे हैं।
कामुक भाव व प्रेम कहे, वह कथ्य सखे हम जान रहे हैं।।
है व्यभिचार प्रसार बना, जिससे अघ की नित हो अगवानी।
पंथ कु-पंथ सु-सङ्ग बिना, निज वेद करें यह सत्य बखानी।
देह सनेह हुआ जब से, अनुराग मरा मृत है दृग पानी।
सुह्रद बात यही कब से, हम बोल रहे नित ही मृदु बानी।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’