मत्तगयंद व चकोर सवैया
!! श्रीं !!
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मत्तगयंद सवैया
(7 भगण + गागा)
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सूरज चंद्र समान बनें जन रैन अमावस हो उजियाली ।
दीपक नेह प्रकाशित हों उर कोष भरें मन के सब खाली ।।
गंध सुगंध उड़े मकरंद कली फल फूल भरें हर डाली ।
‘ज्योति’ कहे तब चैन पड़े जब प्रेम भरी छलके उर प्याली ।।
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चकोर सवैया
(7 भगण + गाल)
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लौट चलें अब तो अपने घर घूम रहा दुनिया यह गोल ।
लेकर के तिल भी न चले इसमें कुछ भी न मिले बस पोल ।।
योनि तुझे दिखतीं जितनी सब चाम मढ़ीं यह हैं बस खोल ।
ईश्वर को नित ही भज ‘ज्योति’ कहीं फिर निर्भय होकर डोल ।।
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा ।
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