दोस्त (2)
कुछ लोग नहीं कुछ होकर भी,
जैसे सब कुछ बन जाते हैं ।
कुछ कदम साथ ही चलते केवल,
लेकिन दिल में बस जाते हैं ।।
उन पर अधिकार नहीं कुछ भी,
कुछ कहें भला कैसे उनसे,
बिन मांगे कुछ भी दे देते,
बिन बोले सब कह जाते हैं ।।
कुछ नाम न दो इस रिश्ते को,
वे कौन हैं मेरे, ये मत पूछो
हां, कुछ-कुछ उनमें है जादू,
हम जिसमें बंध-से जाते हैं ।।
कुछ तो उनको भी बेचैनी,
बेचैन बनाया करती है।
जब-जब उनकी खातिर तड़पा,
तब-तब वे आ ही जाते हैं ।।
कुछ उनकी झिझक, कुछ मेरी हिचक,
दोनों ही बने बाधक हरदम,
हम अपनी-अपनी सीमा में,
सिमटे-सकुचे रह जाते हैं।।
©अभिषेक पाण्डेय अभि