मजाज़ लखनवी को समर्पित
कोई ईनाम, कोई रूतबा,
कोई ओहदा नहीं पाता
क्योंकि वह गैरों की तरह
राग दरबारी नहीं गाता…
(१)
सामने उसके अफसर हों
या खुद ज़िल्ल-ए-इलाही
वह अवाम का शायर है,
उसे डरना ही नहीं आता…
(२)
जो सदियों से मज़लूमों के
दिलों में आग सुलगती है
अपने लफ़्ज़ों के ज़रिए
वह उसको ही बाहर लाता…
(३)
तो खलती है उसे भी बहुत
किसी हमसफ़र की कमी
वह जद्दोजेहद करते-करते
जब पूरी तरह थक जाता…
(४)
उसकी इज़हार की जुर्रत से
बेचैनी है हम-असरो में
वह कितने बागी तेवर से
नारा-ए-हक़ दोहराता…
(५)
सारी काबिलियत के बावजूद
वह बिल्कुल बेरोजगार है
अपनी रोजी-रोटी के लिए
दर-दर की ठोकरें खाता…
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Shekhar Chandra Mitra
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