मज़ार की चादर
बात फरवरी आखिर की है। मौसम गुलाबी था। सुबह-शाम की सर्दी तो थी। मन्नत पूरी होने पर दिल्ली से एक परिवार मजार पर चादर चढ़ाने पहुंचा था। किसी खास वजह से मजार पर कुछ ज्यादा ही भीड़-भाड़ नजर आ रही थी। इसलिए वह परिवार चाहता था कि कोई सहारा मिल जाए, भले ही उसके एवज में कुछ खर्च हो जाए। आखिरकार उनकी इस मंशा को एक बिचौलिये ने भांप ही लिया। उनकी मुलाकात मज़ार कैम्पस में मौजूद एक पेशेवर गुट से करा दी। ख़ैर, उस गुट के मुखिया ने बहुत एहतराम के साथ उस इलाके के सारे मज़ारों की ज़्यारत कराई।
सभी जगह न्याज़-नज़्र के अब बाद फाइनली रस्म यानी सबसे बड़े मज़ार पर चादर चढ़ाने की बारी थी। शाम हो चुकी थी, अंधेरा और कुछ सर्दी का एहसास होने लगा था। पेशेवर गुट के मुखिया की मदद से चादर चढ़वाने की रस्म चल रही थी। इस बीच कोई 10-11 साल का बच्चा आया और बिजली की तरह चादर को लेकर भाग खड़ा हुआ। फिर क्या था, आगे-आगे वह बच्चा और उसके पीछे कुछ जवान जायरीन भाग रहे थे। काफी कोशिशों के बाद उस बच्चे तक पहुंचे सके, लेकिन यह क्या? उस बच्चे ने उस चादर को ठंड से ठिठुर रहे एक बुजुर्ग के ऊपर डाल दिया।
यह देखकर सभी अवाक…! कुछ पल का सन्नाटा… लेकिन कोई इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाया कि बुजुर्ग के ऊपर से चादर उठा सके। इस पर पेशेवर गुट के मुखिया ने दिलासा दिया कि वह अपनी तरफ से दूसरी चादर चढ़वा देगा। इस पर जायरीन परिवार ने साफ इनकार कर दिया। उन सभी के चेहरे पर सुकून भरा एहसास और आंखों की चमक देखकर महसूस हो रहा था कि चादर सही जगह पर चढ़ चुकी थी।
© अरशद रसूल