ये इश्क़-विश्क़ के फेरे-
मज़ाज़ी इश्क़ नहीं, हक़ीक़ी शायरी से मोहब्बत है,
हमें हक़ीक़त के सिवा, दुनियादारी से नफ़रत है।
इश्क़-विश्क़ के फेरे में, न हम पड़े न पड़ने वाले,
शायरी तो हमारे दिल-ओ-जां-ख़ूं की फ़ितरत है।
न हुए हम शोहरतों-दौलतों के सुख़नवर तो क्या,
अपना तो हर मिसरा और अ‘शआर ही दौलत है।
ज़िंदगी प्याला-ए-मय मेरा, फ़ना हसीं मयख़ाना है,
जाने कौन ज़ाहिल कह गया, शराब बुरी सोहबत है।
इन दिनों ख़ूब चलता है नंगे बदन, लुभाने का खेल,
नादां कमजोर दिलों के ख़िलाफ़, ये नई अदावत है।