मज़हब !
मजहब भले ही अलग हो,
दिल में ईश्वर एक है ।
पूजा पद्धति अलग हमारी,
इरादे तो लेकिन नेक हैं।
कुछ लोगों के भड़काने पर,
क्यों आपा हम खोते हैं।
कुछ लोगों के आग लगाने पर,
क्यों घोड़े बेच हम सोते है।
नफरत के उन्मादों से,
मजहब का उफान बढ़ेगा।
रोष भरे संवादों से,
विनाश वाला तूफान बढ़ेगा।
क्या भावों का अभाव हुआ,
या दूर मन से सद्भाव हुआ।
क्यों उग्र इतने हम हो रहे,
क्यों भाव मन के खो रहे।
मंदिर मस्जिद उसके आलय हैं,
मानवता के सभी न्यायालय है।
धर्मग्रंथ हमारे सबको रह दिखते
जीने का मतलब ये बतलाते।
आओ सब मिलकर यहां रहें,
सुख सुख हम सब साथ सहें।
प्रेम भाव से चलो आगे बढ़े,
कविता कोई अब नई गढ़े।