मज़लूम ज़िंदगानी
बहुत सोच कर भी कुछ न कह पाती है ,
इस- क़दर जज़्बातों को दफ़्न किए जाती है ,
ज़ेहन में ख़यालों की आमेज़िश कभी थमती नही ,
चाह कर भी मारिज़ -ए- इज़हार में कभी आती नही,
दिल में एक अजीब सी बेचैनी तारी रहती है ,
ज़ब्ते एहसास ये ज़िंदगी इस- क़दर भारी रहती है ,
जिस्मे कफ़स में कैद वो रूह खुली फ़िज़ा को
तड़पती रह जाती है ,
लाख कोशिश पर भी ज़माने से बग़ावत का
हौसला ना जुटा पाती है ,
इस तरह ज़माने की रिवायत के आगोश में ,
मज़लूम ज़िंदगानी सिसकती रह जाती है ।