मजहबों की न घुट्टी…
अजब आदमी है यह क्या चाहता है
जफा के नगर में वफा चाहता है
जो करता रहा उम्र भर बेहयाई
है बेटी जवां तो हया चाहता है
हिकारत न कर हम फकीरों से इतनी
हमीं से ज़माना दुआ चाहता है
सलामत रखो तुम यह ईमान अपना
मिलेगा वहीं जो खुदा चाहता है
नज़ारा अजब है, परेशां है मुनसिफ
यह मुजरिम खुशी से सज़ा चाहता है
यह दूरी वही जो बढ़ा कर गया था
मिरा दर वह अब क्यों खुला चाहता है
उसे मजहबों की न घुट्टी पिलाओ
वतन का जो अरशद भला चाहता है