मजलूमों की गालों पर
न्याय पाँच जूतों से होता ,
इज्जत की चौपालों पर I
लगता है सामंती थप्पड़ ,
मजलूमों की गालों पर I
पाँव पखारे अब भी पीता ,
बैठे नहीं चबूतर भी।
आसमान में उड़े न जाने,
कितने धवल कबूतर भी।
मगर आज भी गोरी आँखें,
भृकुटी ताने कालों पर ।
बुझे पेट का बड़वानल भी,
जूझ रहे तूफानों से I
मरे नीर की धारा में वो,
प्यासे वो नादानों से ।
लिखी नही थी कहीं जाति भी,
उसके बिखरे बालों पर ।
लटके उल्टे चमगादड़ से ,
वर्षों से उनके सपने ।
पढ़ लिखकर कुछ डण्डा मारे,
पास कभी थे जो अपने ।
उस पर खेले दाँव सियासी,
जो बिकता है चालों पर।