मजबूर
जीवन का ये कैसा अजीब दस्तूर है
मुस्कुराता चेहरा भी लगे मजबूर है
बीच अपनों के मिले सुकून इसको
उलझने ही जिन्दगी का कसूर है
रोटी के खातिर ही आदमी मजदूर है
अपनी मेहनत पर सबको ही गुरूर है
हँसीं खुशी के साथ रहते सब के बीच
मगर जिन्दगी तो आज भी बेनूर है
______________अभिषेक शर्मा