मजबूरी
सुबह के 8:30 बजे थे राहुल ने बजरंग ढाबा बरेली से पीलीभीत का सफर तय किया कई दिनों से मन में बहुत उथल पुथल चल रही थी इसलिए अपनी दादी माँ से मिलने पीलीभीत निकल पडा। बजरंग ढाबे पर पहुंचते ही उसे रोडवेज की बस मिल गई। वह बस में चढ़ गया और एक युवती के पास जाकर बैठ गया। सामाजिक सरोकारों और भावनाओं से भरा राहुल एक शौकीन कवि लेखक था चेहरे पढना परिस्थितियों को भाँपना और उन परिस्थितियों को शाब्दिक तर्क के आधार पर अमली जामा पहनाना उसका विशेष हुनर था उस युवती के साथ बैठकर उसकी भाव भंगिमा को देखते ही राहुल समझ गया कि वह किसी ड्रामा कम्पनी की अदाकारा है जो अपनी तीन अन्य सहयोगियों के साथ किसी कार्यक्रम में प्रतिभाग करके आ रही थी जैसा कि कवि का अर्थ ही होता है कि किसी मनुष्य के आन्तरिक दर्द को लिखना। राहुल भी चारों युवतियों के चेहरे पर बिखरी दिखावटी हंसी के बीच उनके उस मायूस चेहरे को पढने की कोशिश कर रहा था जहाँ एक नारी ने अपने नारित्व का परित्याग कर स्वयं को विभिन्न मंचों का खिलौना बना लिया था और कुछ हद तक जब वह पढ़ पाया, तो उसमें उसे कुछ आँसूओं में सने अल्फाज़ मिले जहाँ उसे उन युवतियों के भीतर कई किरदार मिले। राहुल उनमें एक बचपन से मिला मिला, जो किसी चौपाल पर बैठकर गुड्डे-गुडिया की शादी रचाकर छोटे-छोटे भगोनो में दार-हप्पा बनाकर उन्हें खिलाना चाहता था, एक बहन मिली जो अपने भाई की कलाई पर राखी बांधकर उसके माथे पर तिलक करना चाहती थी, एक छुटकी मिली जो अपने पापा के कन्धे पर बैठकर मेला जाना चाहती थी, एक विधार्थी की छवि मिली जो पढ़ लिखकर आसमान छूना चाहती थी, एक माँ की लडैती बिटिया मिली जो अपनी शादी के बाद विदाई के गमगीन पलों में अपनी माँ के आलिंगन से लिपटकर अपनी पलकों को भिगोकर रोना चाहती थी एक लड़की मिली जो किसी अच्छे इंसान को अपना हम सफर बनाकर उसके साथ अपनी जिन्दगी के हसीन पलों को आँखों में भरना चाहती थी एक माँ मिली जो एक नवजात शिशु को अपने गर्भ में पालकर ममता के एहसास को जीना चाहती थी और एक स्वाभिमान के साथ अपनी जिन्दगी जीना चाहती थी लेकिन राहुल को उन युवतियों के भीतर इतने सारे किरदारों की तलाश में मिला था बस एक किरदार, जिसका नाम था मजबूरी।
© मोहित शर्मा स्वतंत्र गंगाधर