मजबूरियाँ
कितनी बेबस होती है मजबूरियाँ।
टूट कर रोती हैं जिसमें सिसकियाँ।
रोज़ी रोटी के लिए अपने सगों से-
झेलनी पड़ती है अक्सर दूरियाँ।
हैं सभी को खींचती लाचारियाँ।
कौन सहना चाहता दुश्वारियाँ।
ग़र जरुरत होती न इतनी बड़ी-
सब चलाते अपने मन की मर्जियाँ।
हर क़दम उठती है ले पाबंदियाँ।
नर्म लहज़ों में समेटे तल्ख़ियाँ।
शर्त करती है हज़ारों ही सितम-
जोश हो जाता है जलकर के धुआँ।
क़ैद में रोने लगे आज़ादियाँ।
नाउमीदी की बढ़े आबादियाँ।
कुफ़्र सी यह ज़िन्दगी लगने लगे-
जब मिले अपना न कोई मेहरबाँ।
दर्द की दिल में मचलती तितलियाँ।
सौ कहानी कह रही ख़ामोशियाँ।
बेबसी रोती है घुट घुट रात दिन-
कौन देगा हौसलों की थपकियाँ।
ज़ुल्म की क्यूँकर गिराए बिजलियाँ।
क्यूँ न बरसे राहतों की बदलियाँ।
ऐ ख़ुदा ग़र तू ही ढाएगा सितम-
कौन फिर आखिर सुनेगा अर्जियाँ।
रिपुदमन झा ‘पिनाकी’
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित एवं मौलिक