मजदूर
हाथ खाली पेट खाली जिंदगी का सफर
कभी पगडंडियों पर कभी राजपथ पर
गांव जाने के लिए वह रात दिन चलता रहा
करता रहा मजबूर मानस मौत का सफर!
ना दिवाली ना दशहरा ना रंगों का त्यौहार
चल पड़ा मजदूर फिर भी गांव का लाचार
पेट पर भारी पड़ा महामारी बड़ी कोरोना
दौड़ता गांव में बूढ़े मां बाप और परिवार!
खींच लाई थी जो मजबूरी जिन्हें इन शहरों को
देखना पड़ेगा मौत का मंजर उन्हीं नजरों को
जान पर बन आई है अब पेट की चिंता कहां
रोक ना पाई मजबूरी भी चल दिए फिर गांव को!
ना भूख की चिंता ना प्यास का जतन
चल दिए वह गांव को बांध के कफ़न
रोक ना पाया कदम वो पांव का छाला
करते रहे सफर और तपता रहा गगन!
गोद मे नवजात ले चलती रही मां
बाप के कांधे पे बैठा रहा मुन्ना
पेट का बोझ पीठ पर लादा रहा
अंजान रास्तों से गुजरता रहा कारवां!
होठ फटने लगे पेट के चूल्हे जले
फटी नजरें ढूंढती रही दो निवाले
जलता भुवन झूलसते बदन चलता रहा
लड़खड़ाते कदम प्यास से सांसे जले!
भूख से बिलखती रही वह दूधमुही बच्ची
दो रोटी के अभाव में सुख गई मां की छाती
कौन सा जतन करें यह कैसा वक्त आ गया
थपकी दे मना रही सुखी छाती को पिलाती!
दूर तक नजर नहीं आ रही आश की कोई किरण
सोच रही है माँ कैसे चुकाऊंगी दूध का वो ऋण
उलझनें है बढ रही है पांव लड़खड़ाते बढ रहा
खुद से ही लड़ रही जीवन संघर्ष बना है रण !
मजबूरी के संघर्ष पथ पर बढ चला मजदूर
कौन जानता यह जिंदगी या मौत का सफर
होश में भी ना रहा थकन का ऐसा नशा चढ़ा
कहां पता था उन्हें सो रहे है मौत की सेज पर!
जिस रोटी के जुगाड़ में शहर आ गया मजदूर
बेबसी ऐसी हुई मिला ना उन्हें रोटी का दो कवर
रोटी बिखरी कहीं ,कहीं जिस्म है बिखरा पड़ा
चिता पर उसकी रोटियां अपनी सेकते सियासतदार !
छीन लिया हक भी परिवार और पुत्र का
बांधा सीमाओं ने पहुंचा ना शव मजदूर का
मुखाग्नि भी नहीं मिली पुत्र या पिता का
संस्कार सब विहीन हुए प्रकोप महामारी का !
मौन कहां सियासत रही डिबेट रोज हो रहे
मजदूरों की मौत पर फरमान जारी हो रहे
कोई कहता जहां हो वहीं रहो कोई उन्हें भेज रहा
कोई उन्हें मारता कोई दुत्कारता जिस्म से लहू बह रहे!
रोज नियम बदल रहे किस्मत उनकी वही रही
भूख प्यास को लिए जिंदगी सेल्टर होम में कट रही
जो कभी जानवरों का घर था अब मानव उसमें रह रहा
इसी बहाने ही सही सियासतदारो की सियासत चल रही!
जैसे जैसे लोग है वैसी वैसी व्यवस्था रही
ट्रेन से किसी को,प्लेन से लाने की हलचल रही
मजबूरी का फायदा उठा दो का चार किराया वसूल रहा
ऐसी नीती चला ही पांच ट्रिलियन की व्यवस्था हो रही!
कहीं पंजीकरण के नाम पर लहू-लुहान हुए
कही सियासत की चाल से हलकान हुए
पहले मैं की चाह में मजदूरों में होड़ रहा
दिखावे की सहानुभूति में पक्ष और विपक्ष हुए!
अब सियासत है बिछ गई मजदूरों की लाश पर
मानवता शर्मसार हुई राजनीतिक विषात पर
सत्ता की सतरंज पर हर चाल कोई चल रहा
लोकतंत्र का सब कुछ नीलाम हुआ राज्य तंत्र पर!
चीर हरण हो गया मां भारती भी सोच रही
ऐसे अपमान पर सत्येंद्र बिहारी की आंखें है रो रही
दोष उतना ही है पांडव का जितना था कौरव का
चीर हरण रोकने को प्रतीक्षा क्या मधुसूदन की हो रही?
*******************************************
सत्येंद्र प्रसाद साह (सत्येंद्र बिहारी)
*******************************************