मजदूर हूँ
कडी धूप को हूँ सहता तेज सर्दी में काम करने को मजबूर हूँ
मजदूर हूँ मजदूर हूँ बस हर सुख सुविधा से दूर हूँ।
खून पसीना एक करता हूँ तब जाकर होती कमाई
नहीं खाया किसी का हक हमेशा मेहनत की खाई।
सुबह से शाम कब होती पता ही नहीं चलता
हमेशा चिंता रहती पेट की सीमित यही तक हुजूर हूँ।
बनाता ऊँचे ऊँचे महल बढाता कारखानों की शान को
कमी न हो कभी मेरे काम में ध्यान रखता मालिक के सम्मान को।
भले ही अपमान मै सहता शिकायत न मै करता हूँ
दर्द मुझे भी होता अंदर से छिपाने में मशहूर हूं।
घर तो मेरा क्या है इक झुग्गी झोपडी है डाली
बच्चे भी हैं उसमें रहते साथ में रहती घरवाली।
कमाकर लाता शाम को जब रौनक घर में छा जाती
रूखी सूखी खाकर चैन से सोते दुआ देता मालिक को भरपूर हूँ।
आता मजदूर दिवस जब हर साल उम्मीदें मेरी हैं बढ जाती
सुनी जाएगी कभी हमारी भी चौडी होगी हमारी भी छाती।
वर्षों से जो ऊपर उठ न पाए क्या सोचा है कभी किसी ने
मिले हर सुख सुविधा हम भी कहें सब मैं अमीर हूँ।
अशोक छाबडा
04062017