मजदूर ही तो थे….
आँखे भरी आशाओं से,सर पे लदी संदूक है
बाजू मे बच्चा रो रहा और कड़कड़ाती धूप है।
होठों पे घर की रट लगी है, प्यास भी अनकूत है,
जेब भी खाली पड़ी, झोले मे भी कुछ टूक है।
चप्पल भी थोड़ी सी बची है, बची उतनी ही जान है,
रात सी अब हो गयी और रास्ता अंजान है,
इक सवाल है अब उठ रहा, अंदर ही अंदर चुभ रहा,
कुसूर मैंने क्या किया, क्यूँ मैं ही सबकुछ सह रहा,
क्यूं मैं ही सड़को पर खड़ा,क्यूँ मैं अकेले चल रहा,
और भी तो रह गए थे, थी पास जिनके गाडियाँ,
कैसे उन्हे जाने दिया, हमपे ही क्यूं ये लाठियाँ।
हम भी तो इंसान थे, जाना हमे भी घर ही था,
क्यूँ इतने बेगैरत हुए, पत्थर तुम्हारा दिल हुआ,
हम मर गए तो क्या हुआ, किसको फरक है पड़ रहा,
रेंग रहे थे सड़कों पर, मजबूर ही तो थे
मजदूर ही तो थे।!!!!!!!!!!!
—— ऋषि सरोज