मजदूर का दर्द…
न खाने का पता है, न सोने का इंतज़ाम,
कौन जाने क्या होगा, मेरे इस सफ़र का अंजाम ।
मैं छोड़कर आया हूँ, उस चमचमाती दुनिया को,
पैदल ही निकल पड़ा हूँ, छूने को मंज़िल और मक़ाम ।
इस भयानक मंज़र से, मेरा दिल रो रहा है,
फ़िर भी है हिम्मत मुझे, न थकने दूँगा अपने पाम ।
रोक सके तो रोक ले, महकमा ज़ालिम सरकार का,
“आघात” न अब रुक पाएगा, चाहे बचे न उसकी जान ।