मजदूरों के बच्चे
मजदूरों के बच्चे
पूरा दिन गगनचुंबी इमारतों में
धमाल करते हैं
शाम होते ही लौट आते हैं
झोपड़ी की जमीन पर।
रुंआसे से चेहरे वाले बच्चे
अजीब नजरों से देखते हैं दुनिया
जब चढ़ जाते हैं इमारत की
आसमां छूती छत पर।
इमारत की मंहगी दीवारों को
छूकर ये बच्चे खूब हंसते हैं।
इमारत के पूरा होने पर
नीचे ही जमीन पर रोक लिए जाते हैं ये बच्चे।
जब जीने लगती है इमारत
तब ये झोपड़ीनुमा बच्चे लाद दिए जाते हैं
भारवाहक वाहनों पर।
दूर तक नजरों में इमारत
साथ जाती है उन बच्चों के।
कुछ दिनों बाद
दोबारा इमारत वाले हो जाते हैं
ये मजदूरों के बच्चे —
उन्हें लगता है ऊपर से दुनिया
अच्छी लगती है —
क्योंकि वे जमीन को ही छत मानते हैं।
संदीप कुमार शर्मा