मजदूरों की दुर्दशा
मजदूरों की दुर्दशा देख ,
आज रोना हमें आ रहा है।
बड़ी – बड़ी इमारतों के नीचे,
सड़कों पर वह जाग रहा है।
भूख के मारे उस बेचारे को,
आज नींद कहाँ आ रहा है।
इधर-उधर वह झाँक रहा है,
कोई उसको काम दे दे।
रात को भी वह बेचारा
काम करने के लिए तैयार है।
क्योकि उसका बच्चा आज,
भुख के मारे बीमार पड़ा है ।
और वह बेचारा हालातों के,
हाथों आज लाचार खड़ा है।
कहाँ से लाए अन्न का दाना,
ईश्वर भी आज नही मेहरबान है।
बार- बार वह अपने बच्चों,
को पानी पीला रहा है।
ढाढस बंधा-बंधाकर वह बच्चों को,
थपकी देकर सुला रहा है।
कहाँ से लाऊँ खाना बच्चों के लिए,
वह सोच-सोच कर पागल हो रहा है।
छत तो पहले से ही न थी सर पर ,
न था तन पर कोई कपड़ा।
पर आज तो भूख ने भी उसको ,
चारों तरफ से है जकड़ा।
एक निवाला कहीं से मिल जाए,
कल का कल फिर से सोचेंगें।
इस सोच के साथ वह ईश्वर से ,
हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहा है।
साथ ही साथ वह इमारतों की ,
खिड़की की ओर झाँक रहा है।
किसी की हो गई मेहरबानी तो ठीक है,
नही तो उस बेचारों को हर दिन
इन हालातों से गुजरना पड़ता है।
~अनामिका