मजदूरों का जीवन।
मजदूरों के लिए जीवन में
कहाँ सुबह कहाँ शाम होती है।
वह बेचरा हर दिन क्या सुबह क्या शाम
पेट के जुगाड़ मे लगा रहता है।
क्या – क्या नही करता है वह
इस पापी पेट को भरने के लिए
अपना पूरा जीवन झोक देता है
सिर्फ और सिर्फ दो जून रोटी के लिए।
इस दुनियाँ की परिभाषा में
वह कहाँ आ पाता है
अपना सारा जीवन वह
मजदूरी में ही बीता देता है।
डोलता रहता उसका जीवन
भूख और प्यास के बीच में
फिर भी डिगा रहता वह
इस मजदूर के भेष में।
हर दिन टूटकर बिखरते रहते हैं
उसकी जीवन की सारी हसरतें
हर दिन दम तोड़ता रहता है
उसके आँखो का ख्वाब।
कोल्हू की बैल की तरह
वह हर दिन पीसता रहता है।
संघर्ष उसके जीवन का एक अहम
हिस्सा बनकर रह जाता है।
तमाम इच्छा को गला घोट
पूरी जीवन दो रोटी की
तलाश में वह गुजार देता है
पर कहाँ वह अपनी किस्मत बदल पाता है।
किस्मत देखो मजदूर का
इतनी मेहनत के बाद भी
कभी दो रोटी थाली में मिल जाता है
और खाली थाली देख आंसु बहना पड़ता है।
भुख की उलझन में सारी जीवन
वह ऐसा उलझ कर रह जाता है।
फिर सारी जीवन उसके आगे
कहाँ सोच पाता है
बस किस्मत पर रोता रह जाता है।
~ अनामिका