मगर अब मैं शब्दों को निगलने लगा हूँ
जमाने के रंगों में मैं यूँ ढ़लने लगा हूँ ।
न चाहकर भी खुद को बदलने लगा हूँ ।।
कभी सोचा था जिन राहों पे चलना ।
जाने क्यों उन्ही से मैं अब टलने लगा हूँ ।।
जो लोग कभी मुझको लगते थे अपने ।
उन्ही से बचकर मैं अब निकलने लगा हूँ ।।
हकीकत समझने लगा हूँ जिंदगी की ।
झठे ख्वाबों,खयालों को कुचलने लगा हूँ ।।
गिला शिकवा मुझको किसी से नहीं है ।
पर खुद की ज्वाला में ही जलने लगा हूँ ।।
बहुत सोचता था कोई कुछ भी कहता ।
मगर अब तो शब्दों को निगलने लगा हूँ ।।
‘विनोद’ मुझको भी सच्च बता दो जरा ।
मैं आज गिरने लगा कि सम्भलने लगा हूँ ।।