मकड़ी के जाले
मेरे नैनों ने ऐसे सपने रच डाले
जैसे सूने घर में हों मकड़ी के जाले ।
चंदा-सूरज रहे उतरते अंत:तल पर
किंतु नहीं कर पाया मैं ही कैद उजाले ।
मन से करता रहता हूं विद्रोह हमेशा
तोड़ क्यों नहीं देता संकोचों के ताले ।
पी जाते हैं दर्द और हंसते रहते हैं
कम ही होते हैं जग में मुझसे मतवाले ।
लिखी गई हो अगर रक्त से जीवन गाथा
कैसे हो सकते हैं उसके अक्षर काले ।
मन का ‘मौन’ व्यक्त होगा तो जगत कहेगा
दिखा दिए इसने भी अपने रिसते छाले ।